मैं जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का समर्थन या विरोध करने की हामी नहीं हूँ... मैं तो इस बात से चिंतित हूँ की जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी साहित्य और हिंदी वालों की जगह और अहमियत क्या है?
कई बार तो ऐसा लगता है कि बेगानी शादी में हिंदी वाले अब्दुल्ले दीवाने हो रहे हैं. दो-चार नामों को छोड़ कर बाकी लोगों की स्थिति देखने लायक होती है!
कुछ सत्ता के नजदीक रहने वाले लेखक-प्रशंसक इसके समर्थन में मुखर हो कर इसकी सफलता के गान गा रहे हैं. और कुछ छुटभैये टाईप लोग-लेखक पहली बार मिले मौके की खुमारी में हैं.
बात केवल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी वालों की जगह और अहमियत की होनी चाहिए, उनके सक्रीय हस्तक्षेप की होनी चाहिए, हिंदी साहित्य की दशा और दिशा को इस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कितना स्पेस मिला इसकी होनी चाहिए, हिंदी वालों के प्रतिनिधित्व की होनी चाहिए, ना कि वहाँ जुटी भीड़ से इसकी सफलता का नगाडा पीटने की.
कुछ लोग वहाँ जुटी भीड़ के आधार पर ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता से अभिभूत हो रहे हैं. पर सच्चाई यह है कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, भीड़ भीड़ होती है. ऐसे अवसरों पर भीड़ बाज़ार की प्रचारक बन जाती है. सच्चाई को झुटलाने का औजार बन जाती है. अन्ना ने भी भीड़ ही जुटायी थी और उस भीड़ का सच अब सबके सामने है.
एक बात मैं सब से पूछना चाहती हूँ कि भीड़ की गणित पर ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता क्यों आंकी जा रही है? जैसा नन्द भरद्वाज जी ने कहा है-- “हर रोज इस आयोजन में अगर जयपुर और बाहर से हजारों की संख्या में लोग आ रहे हैं, बल्कि पांचों दिन का आंकड़ा शायद डेढ़-दो लाख पर भी जा पहुंचे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।....”
क्या यह भीड़ ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता है? क्या मुरारी बापू... आशाराम बापू या और बाबाओं को सुनने के लिए इससे ज्यादा भीड़ नहीं जुटती? अभी जयपुर में हुए ‘टिकिट टू बोलीवुड’ में कितनी भीड़ जुटी थी, इसका अंदाज़ा भी सब को होना चाहिए.
अगर यह भीड़ साहित्यिक अभिरुचि का पर्याय है तो फिर यह भीड़ तब कहाँ होती है जब जयपुर या अन्य जगह पर साहित्यिक गोष्टियाँ होती हैं? वहाँ तो बीस-पच्चीस लोग जुटाने भारी पड़ जाते हैं! आप हिंदी के बड़े साहित्यकार विजेन्द्र, नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज जी की ही एक गोष्टी करके देख लीजिए, यही क्यों नामवर जी को भी बुला कर देख लीजिए क्या हश्र होता है उपस्तिथि का! और दूसरी तरफ मंच के कवियों का कवि सम्मलेन कर के देख लीजिए भीड़ का आलम!
जाहिर है जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उमड़ी भीड़ की संजीदगी को लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते, और हट पूर्वक आश्वस्त होते ही हैं तो यह हिदी साहित्य के भविष्य पर गहरा कुहासा होगा, या हम छोटे स्वार्थ में गाफिल हो गए होंगे!
जिस युवा वर्ग की भारी भीड़ को लेकर हमारे वरिष्ठ साहित्यकार साथी हिंदी साहित्य की स्थिति को लेकर अत्यंत आशान्वित हैं उन्हें सोचना चाहिए कि यही भीड़ “मुन्नी के बदनाम होने पर”, “शीला के जवान होने पर” और “चमेली बाई के आने पर” भी थिरकती-सीटियाँ बजाती दिख जायेगी. यहाँ भी इनका ‘उत्साह और जोश’ देखने लायक होगा!
हिंदी वालों की निरीहता को वहाँ (जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में) कई बार देखा है. कितने बौने नजर आते हैं हम! चेतन भगत जैसे लोग वहाँ मसीहा होते हैं. या सरकारी आश्रय प्राप्त लेखक चाहे रचनाक्रम में कितना ही बौना हो, वहाँ शिखर पर होता है.
कहने को बहुत है पर ज्यादा नहीं कहूँगी... सब विवेकशील हैं. ...गुणी हैं... प्रतिष्ठित है... पर कहीं तो कुछ ऐसा है जो हिंदी साहित्य के लिए, हिंदी के लेखक के लिए ठीक नहीं है...... आप सब सोचें.