सोमवार, 23 जनवरी 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी साहित्य और हिंदी वालों की जगह

मैं जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का समर्थन या विरोध करने की हामी नहीं हूँ... मैं तो इस बात से चिंतित हूँ की जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी साहित्य और हिंदी वालों की जगह और अहमियत क्या है?
कई बार तो ऐसा लगता है कि बेगानी शादी में हिंदी वाले अब्दुल्ले दीवाने हो रहे हैं. दो-चार नामों को छोड़ कर बाकी लोगों की स्थिति देखने लायक होती है!
कुछ सत्ता के नजदीक रहने वाले लेखक-प्रशंसक इसके समर्थन में मुखर हो कर इसकी सफलता के गान गा रहे हैं. और कुछ छुटभैये टाईप लोग-लेखक पहली बार मिले मौके की खुमारी में हैं.
बात केवल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी वालों की जगह और अहमियत की होनी चाहिए, उनके सक्रीय हस्तक्षेप की होनी चाहिए, हिंदी साहित्य की दशा और दिशा को इस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कितना स्पेस मिला इसकी होनी चाहिए, हिंदी वालों के प्रतिनिधित्व की होनी चाहिए, ना कि वहाँ जुटी भीड़ से इसकी सफलता का नगाडा पीटने की.
कुछ लोग वहाँ जुटी भीड़ के आधार पर ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता से अभिभूत हो रहे हैं. पर सच्चाई यह है कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, भीड़ भीड़ होती है. ऐसे अवसरों पर भीड़ बाज़ार की प्रचारक बन जाती है. सच्चाई को झुटलाने का औजार बन जाती है. अन्ना ने भी भीड़ ही जुटायी थी और उस भीड़ का सच अब सबके सामने है.
एक बात मैं सब से पूछना चाहती हूँ कि भीड़ की गणित पर ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता क्यों आंकी जा रही है? जैसा नन्द भरद्वाज जी ने कहा है-- हर रोज इस आयोजन में अगर जयपुर और बाहर से हजारों की संख्‍या में लोग आ रहे हैं, बल्कि पांचों दिन का आंकड़ा शायद डेढ़-दो लाख पर भी जा पहुंचे तो कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी।....
क्या यह भीड़ ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता है? क्या मुरारी बापू... आशाराम बापू या और बाबाओं को सुनने के लिए इससे ज्यादा भीड़ नहीं जुटती? अभी जयपुर में हुए टिकिट टू बोलीवुड में कितनी भीड़ जुटी थी, इसका अंदाज़ा भी सब को होना चाहिए.
अगर यह भीड़ साहित्यिक अभिरुचि का पर्याय है तो फिर यह भीड़ तब कहाँ होती है जब जयपुर या अन्य जगह पर साहित्यिक गोष्टियाँ होती हैं? वहाँ तो बीस-पच्चीस लोग जुटाने भारी पड़ जाते हैं! आप हिंदी के बड़े साहित्यकार विजेन्द्र, नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज जी की ही एक गोष्टी करके देख लीजिए, यही क्यों नामवर जी को भी बुला कर देख लीजिए क्या हश्र होता है उपस्तिथि का! और दूसरी तरफ मंच के कवियों का कवि सम्मलेन कर के देख लीजिए भीड़ का आलम!
जाहिर है जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उमड़ी भीड़ की संजीदगी को लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते, और हट पूर्वक आश्वस्त होते ही हैं तो यह हिदी साहित्य के भविष्य पर गहरा कुहासा होगा, या हम छोटे स्वार्थ में गाफिल हो गए होंगे!
जिस युवा वर्ग की भारी भीड़ को लेकर हमारे वरिष्ठ साहित्यकार साथी हिंदी साहित्य की स्थिति को लेकर अत्यंत आशान्वित हैं उन्हें सोचना चाहिए कि यही भीड़ मुन्नी के बदनाम होने पर, शीला के जवान होने पर और चमेली बाई के आने पर भी थिरकती-सीटियाँ बजाती दिख जायेगी. यहाँ भी इनका उत्साह और जोश देखने लायक होगा!
हिंदी वालों की निरीहता को वहाँ (जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में) कई बार देखा है. कितने बौने नजर आते हैं हम! चेतन भगत जैसे लोग वहाँ मसीहा होते हैं. या सरकारी आश्रय प्राप्त लेखक चाहे रचनाक्रम में कितना ही बौना हो, वहाँ शिखर पर होता है.  
कहने को बहुत है पर ज्यादा नहीं कहूँगी... सब विवेकशील हैं. ...गुणी हैं... प्रतिष्ठित है... पर कहीं तो कुछ ऐसा है जो हिंदी साहित्य के लिए, हिंदी के लेखक के लिए ठीक नहीं है...... आप सब सोचें.

7 टिप्‍पणियां:

  1. मात्र भीड़ जुटने से उपजने वाली प्रसन्नता पर तुम्हारे सवाल और चिंतना वाजिब है..

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  2. चारु, तुम्हारी चिंताएं सही हैं. JLF का पिछले वर्ष का मेरा अनुभव भी बहुत सुखद नहीं है. पर तुमको यह क्या हो गया है? तुम क्यों इतना आक्रामक हो रही हो? क्या सारी गंदगी साफ़ करने का ठेका तुमने ही ले रखा है. और तुम्हारी भाषा को क्या हो गया? क्या तुम बड़े-छोटों का लिहाज ही भूल रही हो? माना की लोग JLF को लेकर संजीदा नहीं है, चापलूसी वाली भंगिमा मैं है, पर तुमको इतना बोलने की क्या जरुरत है. मैंने तुम्हें कहा था कि सच कड़वा होता है, और सच बोलने में किसी को बुरा लगे तो परवाह नहीं करनी चाहिए, पर इसका मतलब यह नहीं है कि आप गलत-सलत, ऊंचा-नीचा कुछ भी कह दो.
    लिखो, खूब लिखो पर थोडा संयत होकर. लड़ो, संघर्ष करो, डटी रहो पर किसी का अपमान करने के लिए नहीं. सच कहने और रास्ता दिखाने के और भी तरीके हैं. ध्यान रखो.
    नन्दकिशोर नीलम

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  3. जयपुर लिटरेचर फेस्‍टीवल और आलोचना पर चल रही बहस पर आपकी टिप्‍पणियां वाकई संजीदा और विचारणीय हैं। मेरा इन दोनों ही मसलों से गहरा कन्‍सर्न रहा है। JLF के आयोजकों के बेहद आग्रह पर ही तीन साल पहले मैं उनके साथ विचार-विमर्श में शरीक हुआ था, हालांकि आयोजन का रीजनल सलाहकार होकर भी इसके प्रति मैं शुरू से सतर्क आलोचनात्‍मक रुख रखता रहा हूं, जरूरत पड़ने पर उनकी बैठकों में मैंने कुछ बातों पर अपनी असहमति व्‍यक्‍त भी की है। पूरे आयोजन की रूपरेखा से भी मेरा कम ही वास्‍ता रहा है, जो मुझे अक्‍सर अटपटी लगती रही है। इसके बावजूद कोशिश यही रही है कि राजस्‍थान प्रदेश और साहित्‍य के कवर में होने वाले इस आयोजन में हिन्‍दी और राजस्‍थान के लेखकों की भागीदारी कुछ बेहतर बनी रहे। आयोजकों ने हमेशा आश्‍वस्‍त किया कि वे गुणात्‍मक दृष्टि से एक बेहतर साहित्यिक आयोजन के लिए प्रयत्‍नशील हैं, इसी आश्‍वासन के चलते मैं इतनी दूर तक इनके साथ रहा, अब आगे रहूंगा या नहीं, इसी पर विचार कर रहा हूं। मैं साफ मन का इन्‍सान हूं, कोई आग्रह करके राय-मशविरे की अपेक्षा करता है तो ज्‍यादा मान-मनुहार नहीं करवाता, लेकिन सतर्क भी रहता हूं।
    उत्‍सव का यह आयोजन अब धीरे-धीरे मेरे सामने अपने असली आकार में खुलने लगा है, ये शुद्ध मार्केटिंग वाले लोग हैं, जो हर चीज से मुनाफा बना लेने के फेर में हैं - न ये अंग्रेजी के सगे हैं और न हिन्‍दी या किसी अन्‍य भाषा के, इन्‍हें मार्क्‍सवाद से तो क्‍या माओवाद से भी कोई एतराज नहीं है, बस उससे मार्केटिंग में मदद मिलनी चाहिये। सलमान रुश्‍दी आयें या न आएं, उसके नकारात्‍मक प्रचार से भी अगर मार्केटिंग बेहतर होती हो तो वह इनके लिए फायदेमंद है। यद्यपि हिन्‍दी और प्रादेशिक मसलों पर या जिन रचनाकारों की भागीदारी को लेकर मैंने जो भी सुझाव दिया, उसे बिना किसी एतराज के अक्‍सर मान लिया जाता रहा है। निजी तौर पर मेरे मान-सम्‍मान में कोई कमी नहीं दिखाते, लेकिन मैं इस बात के लिए इनके साथ नहीं हुआ था, आयोजन की सफलता को मैं अकेले भीड़ के तर्क से भी नहीं देखता, और भी बहुत से कारण हैं, लेकिन कुल मिलाकर ये सारे कारण गैर-साहित्यिक ही लगते हैं, इसलिए मेरी दिलचस्‍पी अब क्षीण हो रही है। बहरहाल आपने बेहतर विवेचन किया है। बधाई।

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  4. "भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, भीड़ भीड़ होती है. ऐसे अवसरों पर भीड़ बाज़ार की प्रचारक बन जाती है. सच्चाई को झुटलाने का औजार बन जाती है. अन्ना ने भी भीड़ ही जुटायी थी और उस भीड़ का सच अब सबके सामने है."

    आपने गहरे सवाल उठाये हैं ....और निश्चित रूप से प्रासंगिक भी हैं यह ....इनका उत्तर तलाशना हमारे लिए टेढ़ी खीर के समान है ...!

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  5. हेमा जी आभार.
    नीलम सर, क्षमा चाहती हूँ, अगर किसी के प्रति अपमानजनक शब्द कह गयी हूँ तो दिल से माफ़ी चाहती हूँ.मेरा मंतव्य निसंदेह अपमान करना नहीं होता.
    नन्द भारद्वाज सर, यह टिपण्णी मैने आपकी बातों से विचलित होकर ही लिखी है. नीलम सर ने बहुत समझाकर और डाट कर कहा है की इस तरह की अपमान जनक भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
    अगर आपको व्यक्तिगत रूप से कोई बात बुरी लगी हो तो माफ़ी चाहती हूँ, जहाँ तक वैचारिक मुद्दों की बात है. मैं अपने लिखे पर कायम हूँ.
    केवल रामजी आपका भी आभार.
    चारु

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  6. अच्छा है कि अपने पूर्व के आकलन को प्रश्नांकित किया है नंद ने. पुनर्विचार जारी रहना चाहिए.

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  7. असल में देखा जाए तो ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’ की कहावत जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर बेहद सटीक बैटती है। क्योंकि आयोजक अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि साहित्य और ग्लैमर में से चुनना किसे है! आयोजकों की शायद ऐसी मंशा रही होगी कि ग्लैमर के साथ साहित्य परोस दिया जाए, पर शायद हमारे देश में यह संभव नहीं है। शराब के जाम छलकाने के साथ जिस तरह का साहित्य मंथन यहां हो रहा है, समझ में नहीं आता उसके मायने और उपयोगिता क्या है! वैसे, कॉरपोरेट संस्कृति के जरिए साहित्य उत्सव के बहाने भीड़ जुटाने के लिए आयोजक साधुवाद के पात्र हैं। इनकी कु-सोच का ही परिणाम है कि भीड़ के रूप में इन्हें साहित्य समीक्षक नजर आते हैं।

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