सोमवार, 9 जनवरी 2012

एक पत्र डॉ. नंदकिशोर नीलम के नाम

आदरणीय सर,
मैं एक साधारण जिज्ञासु पाठक हूँ, और मुझे पाठक रहने में ही बेहद सकून मिलता है. अपनी प्रतिक्रिया देने में भी संकोच करती हूँ. पर जब कहती हूँ तो बेधड़क होकर. जिन मुद्दों की बात आपने की है उनसे जूझना और लड़ना मैने आपसे ही सीखा है.
आपके सारे आलेख, सारी पांडुलिपियाँ मैने पढ़ी है. आपकी थीसिस, पी डी एफ वाली थीसिस, आपकी योजनाएं सभी तो मैने पढ़ी हैं, मेरे लिए, मेरी समझ गढ़ने के लिए ये सब काफी था.
कहानी या कथा साहित्य को लेकर मेरी जो कच्ची-पक्की समझ है, वह भी आपकी देन है. आप इतनी सारी साहित्यिक पत्रिकाओं की सदस्यता वर्षों तक उपहार स्वरुप नहीं देते रहते तो शायद हिंदी में एम ए भी नहीं कर पाती! और पढ़ने की ललक भी विकसित नहीं हो पाती. फिर कुछ बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.
मुझे झूठ, अहंकार और कमीनेपन से सख्त नफरत है जो आपसे ही सीखा है. जब लेखकों-आलोचकों को पटर-पटर झूठ बोलते और अहंकार-बड़बोलेपन में डूबे देखती-सुनती हूँ तो बहुत क्रोध आता है. मेरी अपनी जमीन के लोग जब इस झूठ और मक्कारी में आकंठ डूबकर बडबोले होते हैं तो मन और भी तडफ उठता है. क्या नाम, शोहरत और धन की लिप्सा इस कदर हावी हो गयी है कि हमारा ज़मीर ही दब-मर गया है.
ये सब देख कर कुढन होती है. इस लिए कभी-कभी आक्रामक हो उठती हूँ.
सर, कृपया मुझे महिमा-मंडित न कीजिये, इस महिमा-मंडन से मुझे कोफ़्त होती है. मैं पुरोधा होने या कहानी-आलोचना में कोई सनसनी फ़ैलाने के लिए अपनी टिप्पणियाँ नहीं देती हूँ. मैं तो बस अपनी बात ईमानदारी से कहने की कोशिश करती हूँ.
हिंदी आलोचना में आजकल बड़ों और वरिष्ठों को गरियाने, उनको पूरी तरह ख़ारिज करने, उनके लिखे को कूड़ा-कचरा कहने की घातक प्रवृति जो हम नयी पीढ़ी के लेखकों-आलोचकों में पनप रही है, उससे अलग हट कर कुछ सार्थक करने की जो प्रेरणा आपने दी है, मामाजी ने दी है या मुक्तिबोध से ग्रहण की है, उसको साधने की कोशिश करती हूँ. हमारी नयी पीढ़ी में जो उत्साह है वह आशान्वित करता है पर उनमे हमारे आज के मीडिया की तरह सनसनी पैदा करने की जो ख्वाहिश है वह नकारात्मक है. घातक है. यह बाज़ार की मारक चपेट है जिसका अंदाज़ा वह अभी नहीं लगा पा रहे हैं. आने वाले समय में जब तक वह सच को जानेंगे, बहुत देर हो चुकी होगी!
बाज़ार के इस दौर में खेमे-बद्ध या प्रायोजित प्रसिद्धि के मद में जो लेखक-आलोचक चूर हो चुका है. जिसे फेसबुक पर Like-Like पढ़ने की लत पड़ चुकी है, पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में प्रशस्ति गान सुनने की आदत पड़ चुकी है, वह एक धातक नीम बेहोशी का शिकार है. यही नहीं वह खतरनाक स्तिथि तक असहिष्णुता का शिकार भी हो गया है.
ये सब चुनौतियाँ मेरे सामने हैं, मैं इनसे लड़ने का माद्दा रखती हूँ, जानती हूँ मेरे साथ खड़े होने वाले बहुत ही कम लोग हैं, पर मैं खड़ी रहूंगी. कई बार फेसबुक पर इस सच्चाई से रूबरू हो चुकी हूँ कि ज्यादातर लोग ऐसे मुद्दों पर साथ नहीं आते, सच कहने से इस लिए बचते हैं कि अमुख व्यक्ति नाराज़ ना हो जाए.
मुझे सुधा अरोड़ाजी के पाखी पत्रिका के राजेन्द्र यादव पर केंद्रित विशेषांक के साक्षात्कार में उनकी साफगोई और साहस को सलाम करने की इच्छा होती है जिन्होंने राजेन्द्र यादव जी की स्त्री-विषयक मान्यताओं की कलई खोली है. ये साहस और लोगों में क्यों नहीं है? क्यों ज्यादातर लोग चाटुकारिता में लिप्त रहते हैं? विभूति नारायण राय प्रकरण में अनेक युवा लेखिकाओं ने कोई टिपण्णी नहीं की, ज्ञानपीठ से जहाँ अनेक पुरुष लेखकों ने विरोध स्वरूप अपनी कृतियाँ वापस ले लीं, वहीँ अनेक स्त्री-लेखक ज्ञानपीठ से चिपकी रहीं. ये सब क्या है? क्या ऐसे लेखक-लेखिकाओं के लिए स्त्री-विमर्श सिर्फ स्वार्थ सिद्धि का मार्ग है?
मुक्तिबोध मेरे आदर्श हैं, विचारधारा के प्रति ईमानदारी और प्रतिबद्धता मैने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है. प्रतिबद्धता का अर्थ कुछ मासूम लेखक-लेखिकाओं ने जानबूझकर शुद्र खेमे बंदी से ले लिया है. अपने लाभ के लिए प्रतिबद्धता की अवधारणा से खेलकर वे सत्ता केंद्रित होने का रास्ता साफ़ कर लेते है. यानि चाहे किसी की भी सरकार बने, ये इस तरह की गली बना ही लेते हैं जो इन्हें सरकार की शरण में ले जाकर पुरस्कारों की दौड में बनाये रखे. ये सच्ची चाटुकारिता जानते हैं. सत्ता और शासन से अनुरूप ये रंग बदलना जानते हैं.    
ऐसी तमाम बातें मुझे बेचैन करती हैं.
कहने को बहुत है सर, पर बस बहुत हो गया. आपके चिंताओं में मैं अपनी चिंताएं मिला कर काम करना चाहती हूँ. कभी कभी तो लगता है मैं खुद नहीं लिख रही, आपकी बातों को ही अपनी सुविधानुसार लिख रही हूँ.
बस कोशिश करुँगी की आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतारूँ.

3 टिप्‍पणियां:

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  2. अपने विवेक को कसौटी बनाओ. जो कहना चाहती हो, और जो कह रही हो, उसे इस कसौटी पर परखो. लिखो, जम कर. मंजने-मंजाने की प्रक्रिया चलती रहेगी.

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  3. लेखक और पाठक होने में कोई विभाजन या विरोध नहीं होता चारू, अच्‍छे लेखक का अच्‍छा पाठक होना जरूरी है और और अच्‍छा पाठक एक बेहतर लेखक भी हो सकता है। साहित्‍य की समझ भी एक निरन्‍तर विकासमान प्रक्रिया है, अच्‍छी बात यही है कि उस प्रकिया में दिलचस्‍पी बनी रहे और हम अपना परिमार्जन करते रहें। नीलमजी को लिखी इस चिट्ठी के बहाने आपने कुछ अच्‍छे मंतव्‍य प्रकट किये हैं, उन पर कायम रहें और परिवर्तन की प्रकिया में अपना योगदान देते रहें। शुभकामनाएं।

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