सोमवार, 9 जनवरी 2012

मार्क्सवादी आलोचना का सच.


गणेश पाण्डेय जी ने आलोचना के सन्दर्भ में 'ईमानदारी, साहस और धीरज' बात उठाई है जो आज के आलोचक के लिए ही नहीं, लेखक के लिए भी जरूरी है. मैं अपनी टिप्पणियों में ईमानदारी, साहस और धीरज जैसे और मुद्दों को बराबर शिद्दत से उठती रही हूँ.
गणेश पाण्डेय जी ने एक सही आलोचना को सही सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाने की बात पर बल दिया है. उनके सुझाव और चिंताएं निसंदेह साहित्य (केवल आलोचना ही नहीं) के लिए बहुत जरूरी है.
यहाँ एक बात समझ नहीं आ रही है कि गणेश पाण्डेय जी टिपण्णी और मैनेजर पाण्डेय जी के उद्धरण के साथ अपर्णा जी के इस कथन का क्या आशय है- aur samkaleen alochna hindi sahity mein marxist approach ka synonym bankar rah gai hai ..vishyatantar ke liye maafi chahungi..
par isi khidki se hamne alochna ko dekha hai to iske auzar bhi isi ki barkas dekhe gaye hain..
क्या गणेश पाण्डेय जी टिपण्णी और मैनेजर पाण्डेय जी के उद्धरण मार्क्सवादी आलोचना को ख़ारिज करते हैं? या मार्क्सवादी आलोचना और इन दोनों की टिप्पणियों में कोई विरोध है?
कई ऐसा तो नहीं कि सिर्फ मार्क्सवादी-प्रगतिशील-जनवादी आलोचना या फिर समग्र रूप से मुख्य धारा की आलोचना को नकारने के लिए ये बात सायास कही गयी है? वैसे भी आजकल इन आलोचना धाराओं को नकारने का फैशन चल निकला है, बस नामों से ही आपत्ति है. आलोचना का आधार तो वही टूल्स हैं जो पहले गढे जा चुके हैं. खोट इनमें नहीं है, खोट हमारे विनियोग करने के तरीकों में है. हमें अपनी आलोचना के लोक-चरित्र को समझना होगा. उसकी जीवंत और विकसनशील प्रवृत्तियों को सहजना-विकसित करना होगा. केवल मार्क्सवाद के विरोध के काम नहीं चलेगा, युग-जीवन की परिस्तिथियों के अनुकूल उसे मांजना-निखारना होगा. हमें यह भी देखना होगा कि भोथरी आलोचना हो गयी है या हमारे स्वार्थ प्रबल हो गए हैं जो आलोचना के सही रूप को सामने आने से रोके हुए हैं.
पाण्डेय जी के कथन को ही ठीक से देखें आज हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना का विकास न अतीत के गुणगान से संभव है न चालीस के दशक के स्तालिनवादी मान्यताओं के पुनर्कथन और पुनरावृति से. जरूरत है समकालीन सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों और सांस्कृतिक रचनाकर्म के संदर्भ में मर्क्सवाद की व्याख्या और बोध की. यह कहीं भी मार्क्सवादी आलोचना का विरोध नहीं कर रहा है. यह तो हमें उसके विनियोग के प्रति सावधान होने को कहता है. 
क्या इन दोनों के विचार व्यापक परिदृश्य में मार्क्सवादी आलोचना या कि प्रगतिशील आलोचना या कि जनवादी आलोचना या फिर समग्र रूप से मुख्य धारा की आलोचना का ही रूप नहीं है?
जिस 'ईमानदारी, साहस और धीरज' की बात आलोचना के लिए गणेश पाण्डेय जी करते हैं मार्क्सवादी सोच की आलोचना धाराएँ उनका पूरा सम्मान करती है. अब देखना यह है कि वो कौन आलोचक हैं जो मार्क्सवादी आलोचना के नाम से अपने शुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए नकली और अवसरवादी आलोचना रच रहे हैं. 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात ठीक है, चारू। गणेश पाण्‍डेय और मैनेजर पाण्‍डेय के कथनों में कोई असंगति नहीं है और वे अपने आलोचना कर्म के प्रति संजीदा रचनाकार हैं। गणेश पाण्‍डेय ने बहस में शामिल होते हुए समकालीन आलोचना और रचनाकर्म पर अपनी बात साफगोई से रखी है, लेकिन साहित्‍य कर्म से जुडे बाकी लोगों के अपने सरोकार हैं, साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता के नाम पर जिस तरह की छूट लोग विचार और जीवन-दृष्टि के मामले में लेना चाहते हैं, उसी के चलते बहुत-सारा कुहासा फैल गया दीखता है और ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस कुहासे को अपने लिए अनुकूल भी पाते हैं,ऐसे में किसी बहस को सही दिशा में आगे बढ़ा लेना आसान नहीं है। फिर भी यदि कोई यह प्रयत्‍न कर रहा है तो उसे सकारात्‍मक ही लेना बेहतर है।

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  2. आदरणीय नन्द सर,
    गणेश पाण्‍डेय जी की चिंता जायज है. उन्होंने आलोचना की एक स्वस्थ जमीन तलाशने की बात कही है. और आपने भी सही कहा है कि- “साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता के नाम पर जिस तरह की छूट लोग विचार और जीवन-दृष्टि के मामले में लेना चाहते हैं, उसी के चलते बहुत-सारा कुहासा फैल गया दीखता है और ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस कुहासे को अपने लिए अनुकूल भी पाते हैं,”
    मेरी चिंता भी इसी कुहासे को लेकर है. अफ़सोस है कि यह कुहासा और अधिक गहरा रहा है या जानबूझ कर गहराने दिया जा रहा है. और इसी का लाभ लेने की होड मची हुई है. हमारे समाज में कोहरे की आड़ में जैसे अनेक अपराध होते हैं, साहित्य में भी इस कुहासे की वजह से अपने शुद्र स्वार्थों को साधने के अपराध होते हैं. और इनमे वे बडबोले लेखक ही ज्यादा सक्रीय होतें हैं जो शुद्धता या साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता की बात करते हैं.
    आलोचना की विश्वसनीयता को लेकर जो प्रयास ब्लॉग द्वारा किये जा रहे हैं मैं उनको नकारात्मक नहीं मान रही हूँ, मैं तो खुद 'ईमानदारी, साहस, और धीरज' जैसे अनेक मूल्यों की पक्षधर हूँ और इसके लिए बराबर हस्तक्षेप करती भी हूँ. मेरा कहना तो बस यह है कि टिपण्णी करने और सन्दर्भ देने का भी एक अनुशासन होता है. आप भली-भांति जानते हैं कि सन्दर्भों से काट कर की जाने वाली बातों का कितना नकारात्मक और घातक प्रभाव होता है. विचारक त्रास्त्की को बातों को सन्दर्भों से काट कर कहने में महारत हासिल थी. हिटलर के अनुयायी भी इसमें शिध्हस्त थे. ‘महाभारत’ के अस्वत्थामा-प्रकरण (अस्वत्थामा हतो हत: नरो वा कुंजरो... ) को भी आप सन्दर्भों से काट कर बात कहने के प्रमाण स्वरूप देख सकते हैं. और आज की धर्मांध कट्टरतावादी ताकतें भी बातों को सन्दर्भों से काट कर कहने की आदि हो चुकी हैं. हमारे अधिकांश साहित्यकार भी इस खेल में महारत हासिल कर बेठे है. मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों के साथ भी यही हो रहा है. हमें आज इनके सामर्थ्य और उपादेयता पर बहस करनी चाहिए. इनकी सीमाओं को सामने लाना चाहिए. यह एक बड़ी पहल होगी. पर यह भी कहूँगी कि पहले मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों को पढ़-समझ लेना चाहिए. केवल विरोध के लिए विरोध या अपने स्वार्थों के लिए विरोध नहीं करना चाहिए. मैने कहा भी है कि आजकल मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों के विरोध का एक फैशन चल निकला है. जिसे देखो इनका विरोध करता नजर आता है. बंगाल में वामपंथ की चुनावी हर के बाद ये स्वर ज्यादा मुखर हुए है.

    मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों की आज की सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में विवेचना की जानी चाहिए. अच्छा तो यह हो कि अलग से इस विषय पर एक बहस छेडी जानी चाहिए.

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  3. चारु, तुमने यदि पूरी बहस, जो वहां चली है जहां से तुमने गणेशजी के लेख को उठाकर आधार बनाया है, पर समेकित ढंग से दृष्टिपात करने की कोशिश की होती तो शायद अपने लिखे को दूसरे ढंग से लिखती. मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि वहां इनमें से कई मुद्दों पर कुछ अलग तरह की रौशनी मिल सकती थी.

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