मंगलवार, 10 जनवरी 2012

मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों की जरुरत

नन्द भरद्वाज जी ने एक टिपण्णी में कहा है- साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता के नाम पर जिस तरह की छूट लोग विचार और जीवन-दृष्टि के मामले में लेना चाहते हैं, उसी के चलते बहुत-सारा कुहासा फैल गया दीखता है और ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस कुहासे को अपने लिए अनुकूल भी पाते हैं,”
मेरी चिंता भी इसी कुहासे को लेकर है. अफ़सोस है कि यह कुहासा और अधिक गहरा रहा है या जानबूझ कर गहराने दिया जा रहा है. और इसी का लाभ लेने की होड मची हुई है. हमारे समाज में कोहरे की आड़ में जैसे अनेक अपराध होते हैं, साहित्य में भी इस कुहासे की वजह से अपने शुद्र स्वार्थों को साधने के अपराध होते हैं. और इनमे वे बडबोले लेखक ही ज्यादा सक्रीय होतें हैं जो शुद्धता या साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता की बात करते हैं.
आलोचना की विश्वसनीयता को लेकर जो प्रयास एक ब्लॉग द्वारा किये जा रहे हैं मैं उनको नकारात्मक नहीं मान रही हूँ, मैं तो खुद गणेश पाण्‍डेय जी द्वारा सुझाये गए 'ईमानदारी, साहस, और धीरज' जैसे अनेक मूल्यों की पक्षधर हूँ और इसके लिए बराबर हस्तक्षेप करती भी हूँ. मेरा कहना तो बस यह है कि टिपण्णी करने और सन्दर्भ देने का भी एक अनुशासन होता है. आप भली-भांति जानते हैं कि सन्दर्भों से काट कर की जाने वाली बातों का कितना नकारात्मक और घातक प्रभाव होता है. विचारक त्रास्त्की को बातों को सन्दर्भों से काट कर कहने में महारत हासिल थी. हिटलर के अनुयायी भी इसमें शिध्हस्त थे. महाभारत के अस्वत्थामा-प्रकरण (अस्वत्थामा हतो हत: नरो वा कुंजरो..) को भी आप सन्दर्भों से काट कर बात कहने के प्रमाण स्वरूप देख सकते हैं. और आज की धर्मांध कट्टरतावादी ताकतें भी बातों को सन्दर्भों से काट कर कहने की आदि हो चुकी हैं. हमारे अधिकांश साहित्यकार भी इस खेल में महारत हासिल कर बेठे है. मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों के साथ भी यही हो रहा है. हमें आज इनके सामर्थ्य और उपादेयता पर बहस करनी चाहिए. इनकी सीमाओं को सामने लाना चाहिए. यह एक बड़ी पहल होगी. पर यह भी कहूँगी कि पहले मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों को पढ़-समझ लेना चाहिए. केवल विरोध के लिए विरोध या अपने स्वार्थों के लिए विरोध नहीं करना चाहिए. मैने कहा भी है कि आजकल मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों के विरोध का एक फैशन चल निकला है. जिसे देखो इनका विरोध करता नजर आता है. बंगाल में वामपंथ की चुनावी हर के बाद ये स्वर ज्यादा मुखर हुए है.

मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांतों की आज की सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में विवेचना की जानी चाहिए. अच्छा तो यह हो कि अलग से इस विषय पर एक बहस छेडी जानी चाहिए.    

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